अमेरिका और हजारे का आन्दोलन

 

पिछले दो-ढाई वर्षों से अमेरिकी पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार भारत को लेकर कभी काफी आशान्वित दिखती है तो दूसरे ही क्षण निराशा से ग्रस्त नजर आती है। अति उत्साह और अति अवसाद के ठोस कारण हैं।
आज से लगभग तीन साल पूर्व अमेरिका के साथ भारत के परमाणु समझौते को लेकर वामपंथी दलों ने कांग्रेसनीत संप्रग को छोड़ दिया, फिर भी  समझौते पर संसद की मुहर लग गई।  इससे अमेरिकी सरकार और पूंजीपति वर्ग में भारी प्रसन्नता और उत्साह दिखा। उम्मीद की गई कि अब नवउदारवादी आर्थिक सुधार कार्यक्रम बेरोकटोक आगे बढ़ेंगे और अति मंदी से ग्रस्त अमेरिकी पूंजी के निवेश के लिए भारी अवसर मिलेंगे। अगर आप अमेरिकी पत्र-पत्रिकाओं को देखें तो इस उम्मीद से भरे बयान और लेख मिलेंगे। किंतु ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस और विशेषकर सोनिया गांधी ने महसूस किया कि भारतीय जनतंत्र के स्वरूप और संरचना को देखते हुए आमजन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसीलिए खेतिहरों की ऋण माफी, ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम, समवेती विकास, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार आदि की ओर संप्रग सरकार ने कदम बढ़ाया। 
कहना न होगा कि यह सब कुछ अमेरिका और भारत सरकार के नवउदारवादी विचारों से ओत-प्रोत आर्थिक सलाहकारों को न भाया। रघुरामजी राजन और कौशिक बसु ने कतिपय बयान भी दिए। इतना ही नहीं, सरकार ने राजन के नेतृत्व में बनी समिति की इस सिफारिश को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया कि रुपए को पूंजी खाते में परिवर्तनीय बनाया जाए। साथ ही श्रमिकों के अधिकारों में कटौती की मांग को भी दरकिनार कर दिया गया। याद रहे कि इस पर 2009-2010 की 'आर्थिक समीक्षा' में जोर दिया गया था। अभी हाल में खुदरा व्यापार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के फैसले को भी लागू करने को लेकर जो उत्साह दिखा था, वह अब ठंडा हो गया है। इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो अमेरिकी पूंजी की निराशा और गुस्से का कारण बने हैं।
इसका इजहार तब सामने आया जब अन्ना हजारे ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर अनशन शुरू किया और इधर रामदेव भी मैदान में उतर गए। मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जुड़े लोग उनके पीछे दिखने लगे अमेरिकी पूंजीपति वर्ग को लगा कि भारत में देर-सबेर सत्ता परिवर्तन अवश्यंभावी है और जो भी गठजोड़ संप्रग की जगह लेगा वह उसके हितों के लिए मजबूती से काम करेगा।
अमेरिकी वित्तीय दैनिक 'द वाल स्ट्रीट जर्नल' में जुलाई 14 को छपे लेख 'ए रडुरलेश इंडिया' को देखें। इसमें रेखांकित किया गया था कि मनमोहन सिंह सुधार कार्यकमों को लेकर दिशाविहीन हैं। वे और उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बेहद परेशान हैं। ''वे भारत के राज्य रूपी जहाज को आर्थिक सुधारों की दिशा में ले जाने के लिए कुछ नहीं कर रहे।'' समाचारपत्र ने यह बतलाने की कोशिश की कि आर्थिक सुधारों से गरीबी पर पार पाया और समृध्दि को लाया जा सकता है। दु:ख की बात है कि 2009 में सत्तारूढ़ होने के बाद से मनमोहन सिंह ने ठोस आर्थिक सुधारों की दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया है। इसके विपरीत उन्होंने कल्याणकारी कार्यक्रमों पर अधिक व्यय के प्रावधान किए गए हैं। बाजार के पक्ष में उनका एक ही निर्णय आया है कि घरेलू ईंधन की कीमतों को बढ़ाया जाए मगर यह नाकाफी है। उन्हें कीमतों को पूर्णरूपेण नियंत्रण-मुक्त कर देना चाहिए था।
बतलाया गया कि नियंत्रण ही भ्रष्टाचार को पैदा करता और बढ़ाता है सरकार पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी देती है मगर केरोसिन तेल की कीमतें काफी कम रखती है, जिससे उसको पेट्रोल में मिलाया जाता है। इसको आपराधिक गिरोह चलाते हैं। कुछ समय ऐसे ही एक गिरोह ने महाराष्ट्र में एक ईमानदार अफसर की जान ले ली क्योंकि वह रिश्वत नहीं लेता था।
जर्नल के अनुसार, भ्रष्टाचार की जड़ में सरकार के सख्त कायदे-कानून हैं। इनको समाप्त करने से भ्रष्टाचार काफी हद तक मिट जाएगा। यह भी रेखांकित किया गया कि मनरेगा के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है। अफसर उसके लिए दी जाने वाली रकम को हड़प लेते हैं। खाद्य सुरक्षा संबंधी बिल के पारित होने पर भ्रष्टाचार में भारी इजाफा होगा और उसके लिए रखी जाने वाली 22 अरब 40 करोड़ डॉलर की रकम का अधिकांश हड़प लिया जाएगा।  पत्र ने सुझाव दिया किया हजारे और रामदेव के आन्दोलन के मद्देनजर प्रणव मुखर्जी की जगह किसी बेहतर व्यक्ति को वित्तमंत्री बनाया जाए जो नेहरू-इंदिरा गांधी के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो। 
इसी पृष्ठभूमि में अमेरिकी सरकार के प्रवक्ता के कई बयान आए जो उसी तरह के थे, जैसे मिस्र, यमन, सीरिया आदि मे जनउभार को देखते हुए दिए गए थे। भारत सरकार को हजारे के आन्दोलन को देखते हुए घुटने टेकने का सुझाव घुमाफिरा कर दिया गया था। थोड़े ही दिनों में जब यह स्पष्ट हो गया कि हजारे के आन्दोलन का जनाधार सीमित है और वर्तमान सरकार का कोई बेहतर एवं टिकाऊ विकल्प नहीं है। तब अमेरिकी सरकार ने पुराने बयानों से अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा कि उन्हें मीडिया ने तोड़-मरोड़कर पेश किया है। उनकी मंशा भारत के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करने की कभी नहीं रही है।
इसके साथ ही अमेरिकी पत्र-पत्रिकाओं में भारत सरकार को राय-मशविरा देने का सिलसिला शुरू हुआ। उदाहरण के लिए 'वाल स्ट्रीट जर्नल' में छपे कुछ लेखों को लें। अगस्त 17 को छपे एक लेख में सरकार को बतलाया गया कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में गिरावट चिंता का विषय होनी चाहिए। वर्ष 2008 में वह शिखर पर था परंतु वह गिरते-गिरते 2011 की पहली तिमाही में मात्र ढाई अरब डॉलर पर आ गया। यह सोचना गलत है कि इस गिरावट के पीछे भ्रष्टाचार का हाथ है। यद्यपि भ्रष्टाचार निवेशकों के लिए चिंता का विषय है क्योंकि वह मुनाफे का एक हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में डालता है फिर भी उद्योग-व्यवसाय उससे निपटने में माहिर है। मुख्य कारण है कि सरकार अपनी नीतियों को गतिशील बनाने में असमर्थ है। लगता है कि नीतिगत मोर्चे पर सरकार को लकवा मार गया है। यही कारण है कि जिस जोर-शोर से सरकार ने 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे विदेशी निवेश के लिए खोले और मुक्त बाजार की स्थापना के लिए सुधार किए वह गायब हो गया दिखता है। दूसरे दौर में सुधार कार्यक्रम खटाई में पड़ गए लगते हैं। बाबा आदम के जमाने के श्रम कानून बरकरार हैं, कृषि क्षेत्र में सुधार की बात नहीं की जा रही है। संरचनात्मक गतिरोध बने हुए हैं। इस कारण संभावित निवेशकों को सही संकेत नहीं जा रहे। भारत के नीति-निर्माताओं को सही संदेश देना चाहिए जिससे निवेशक देश में आएं। मुद्रास्फीति के बढ़ने से घरेलू बचत और निवेश पर बुरा प्रभाव पड़ा है। इसलिए आर्थिक संवृध्दि विदेशी निवेश के जरिए ही हो सकती है। साफ है कि उसको रिझाने के ेलिए सभी प्रयत्न होने चाहिए। भ्रष्टाचार तो संवृध्दि की गति धीमी होने का परिणाम है। अगर संवृध्दि की रफ्तार बढ़े, आर्थिक गतिविधियों का निरंतर विस्तार हो तथा आम लोगों को रोजगार के अवसर मिलें और उनकी आय बढ़े तो यह मुद्दा आज जैसा प्रमुख नहीं रहेगा।
इसी पत्र ने 20 अगस्त को रेखांकित किया कि अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को भारत की वर्तमान दुरावस्था का मूल कारण मालूम नहीं है। वे सिर्फ बाहरी और सतही लक्षण को लेकर बेचैन हैं। उसने पुरुषोत्तम मुल्लोली नामक अपने स्रोत के बिना पर दावा किया कि हजारे का आन्दोलन भाजपा और रा.स्व.संघ से जुड़े विचारकों द्वारा प्रभावित और संचालित है। एक अन्य स्रोत, अनिल चौधरी का मानना है कि पिछले साल लखनऊ में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में भाजपा ने भ्रष्टाचार को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने का निर्णय लिया। इसके महीनों बाद उसने 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' को समर्थन देने का फैसला किया। इस गैर सरकारी संस्था के साथ अन्ना टीम के सदस्यों के गहरे रिश्ते हैं। याद रहे कि अरुंधती राय के अनुसार, इनमें से कुछ को फोर्ड फाउंडेशन से काफी धनराशि प्राप्त होती रही है। तुलसीदास की माने तो 'सुर, नर, मुनि, सबकी यही रीति, स्वार्थ लागी करहि सब प्रीति।'
गत 23 अगस्त को वाल स्ट्रीट जर्नल में अमेरिकी बहु राष्ट्रीय निगम मॉर्गन स्टेनले के एक अर्थशास्त्री के लेख में रेखांकित किया गया है कि भारतीय आर्थिक संवृध्दि की दर 7.2 प्रतिशत हो गई है। अगर उसने आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को दलदल में ही फंसे छोड़ दिया तो हालत बिगड़ेगी और जन असंतोष बढ़ेगा। इसकी अभिव्यक्ति जन लोकपाल की मांग को लेकर हुए आन्दोलन में देखी जा सकती है। आवश्यकता है कि नीतिगत सुधार तेजी से हों। खुदरा व्यापार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए दरवाजे खोले जाएं। कोयला खनन के क्षेत्र के निजी क्षेत्र को दे दिया जाए। ईंधन, खाद्य पदार्थों और उर्वरकों पर सब्सिडी घटे तथा राज्य बिजली बोर्ड सरकार नियंत्रण से मुक्त हो और अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में आमूलचूल सुधार हो। साथ ही भूमि अधिग्रहण के कानून में ऐसे परिवर्तन हों जिनसे निवेशकों को उत्पादक इकाईयां लगाने में कोई दिक्कत न हो। अगले छ: महीनों के दौरान इनको लेकर कुछ ठोस कदम उठाए गए तो निवेशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति विश्वास जगेगा जिससे उत्पादन, रोजगार के अवसर और आय में वृध्दि होगी और भ्रष्टाचार का मुद्दा गौण हो जाएगा।

 

vvvvvvvvvvv

 


Contact

REYANSH VYAS

Press & head Office –
‘SANTOSH VIHAR”
Chopasani village near resort marugarh
Jodhpur Rajasthan INDIA 342008



918502994431
919079218224



News

This section is empty.


Poll

क्या 'गहलोत' सरकार बचा लेंगे ?

हा
96%
2,108

नहीं
2%
49

मालूम नहीं
2%
42

Total votes: 2199


News

दिल्ली के माननीयों का नहीं बढ़ेगा वेतन

23/11/2010 11:41
 केंद्र ने दिल्ली सरकार के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें विधायकों के मासिक वेतन में 200 फीसदी और मंत्रियों के वेतन में 300 फीसदी तक की बढ़ोत्त   विस्तृत >>

—————

All articles

—————


© 2011All rights reserved for Dwarkeshvyas